logo

सोचो ज़रा: किसानों के लिए क्यों जरूरी है न्यूनतम समर्थन मूल्य  MSP

15764news.jpg

भरत जैन, दिल्ली:

कृषि कानून वापस ले लिए हैं तो किसान नेताओं ने एमएसपी की मांग को कानूनी हक बनाने की मांग पर जोर लगा दिया है। इस विषय पर तरह-तरह की बातें हो रही हैं। कुछ बेवकूफी वाली, तो कुछ गंभीर। इस विषय पर गंभीर मंत्रणा ज़रूरी है पूरे देश में। यह तर्क दिया जा रहा है कि जब और किसी उत्पाद का कोई मूल्य समर्थन नहीं है तो खाद्य पदार्थों पर क्यों हो ? यह फ्री इकॉनमी ( पूंजीवादी )  सोच का एक मजबूत तर्क है। सच है कि हम कपड़े ,जूते और किसी इलेक्ट्रॉनिक वस्तु के न्यूनतम भाव नहीं तय करते तो फिर किसी उत्पादों के ही क्यों ! 

कारण है कि पूंजीवाद के साथ मानवता का मिश्रण नहीं हुआ तो वह निरंकुश शोषणवाद हो जाता है। कितने ही संघर्ष हुए काम के अधिकतम घंटे तय करने के लिए।  कितना संघर्ष होता रहा है न्यूनतम वेतन बढ़ाने के लिए। इन नियमों के पीछे भाव है कि सब को सम्मान से जीने का हक है। किसानों को सम्मान से जीने का हक नहीं मिल रहा इसीलिए हजारों किसान हर साल आत्महत्या करने पर मजबूर होते हैं। एक तरफ लाखों करोड़ रुपए का ऋण बड़ी-बड़ी कंपनियों का माफ हो जाता है और किसानों के ऋण माफी की बात हो या बिजली, खाद, डीज़ल पर सब्सिडी देने की बात हो तो उन्हें परजीवी घोषित कर दिया जाता है। दूसरी बात आती है कि यदि सारा खाद्यान्न सरकार खरीदने के लिए मजबूर हो जाए तो उसका सरकार क्या करेगी क्योंकि इतनी खपत तो देश में है ही नहीं। यह घटिया तर्कों का एक उदाहरण है। जिस देश में ग्यारह  साल की झारखंड की संतोषी एक मुट्ठी चावल के लिए ' भात - भात ' करते हुए  मर गई वहां पर यह बात कहना शर्मनाक है। जिस बात पर हमें खुशी होनी चाहिए उस पर कुछ लोग मातम मना रहे हैं।

 

ढूंढने पर करोड़ों संतोषी मिल जाएंगे इस देश में। जहाँ 80 करोड़ लोग इस समय प्रतिमाह 5 किलो अनाज मुफ़्त  लेने के लिए सरकार के एहसानमंद घोषित किए गए हैं वहां इस बात पर विलाप की अधिक अनाज उत्पादन का क्या होगा ? सरकार को खरीदकर सार्वजनिक वितरण व्यवस्था ( P D S  ) के माध्यम से वितरण करना है भूख से तड़पते लोगों को। नवंबर 2021 में नीति आयोग द्वारा प्रकाशित बहुआयामी निर्धनता सूचकांक ( Multidimensional Poverty Index ) के अनुसार बिहार में 52% , झारखंड में 42% और उत्तर प्रदेश में 35% लोग गरीब हैं। कई आधार हैं उसमें पोषण के अलावा , पर कम से कम एक   आधार  - खाद्यान्न की कमी  - को हम मिटाने के योग्य हो गए हैं यह खुशी की बात है।

ज़रूरत है मनरेगा जैसी योजना को विस्तार देने की। नगद पैसे ना सही अनाज , दाल , चीनी और तेल जैसी वस्तुएं हम दे ही सकते हैं अब। नगद पैसे कम कर दें यदि यही मुफ़्त दे दें तो। तर्क है कि सारा पैसा यहीं खर्च कर दिया तो इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च कैसे होगा !  जहां लोग भूखे मर रहे हैं वहां चमकती सड़कें और एयरपोर्ट किस ह्रदयहीन इंसान को चाहिएं?  लोकतांत्रिक सरकार का पहला फ़र्ज है भूख का उन्मूलन ना कि दिखावे के लिए मेट्रो और बुलेट ट्रेन चलाना। प्राथमिकताएं बदलेंगे तो कोई समस्या नज़र नहीं आएगी। कुपोषण की समस्या भी है। दलहनों और तिलहनों  को भी वास्तव में  न्यूनतम समर्थन मूल्य  दें इनका ज्यादा उत्पादन करने के लिए तो इनको भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत ला सकते हैं। एक एयरपोर्ट बनाकर कई लाख लोगों को रोजगार देने की बात होती है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के विस्तार से भी करोड़ों लोगों को रोज़गार मिलेगा , लोगों के पेट भरे होंगे और लोग स्वस्थ रहेंगे।

Farmers protest: तीन कृषि कानून....टिकैत के आंसू और पीएम मोदी का बड़ा  फैसला, ऐसा रहा किसान आंदोलन - farmers protest One Year of Kisan Andolan  timeline farm laws pm modi rakesh tikait

 

इस बात का अफसोस किया जा रहा है कि यदि न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून बन गया तो खाद्य उत्पाद दूसरे देशों के मुकाबले महंगे होंगे और निर्यात नहीं हो पाएंगे। निर्यात करना ही क्यों है जब तक यहां पर हर पेट की भूख शांत नहीं हो जाती ? इन गरीबों को क्या आयात करना है जो अनाज निर्यात ना करने के कारण विदेशी मुद्रा के अभाव में आयात होने से रुक जाएगा ? इन लोगों को चमचमाती कारें और लेटेस्ट मोबाइल और लैपटॉप नहीं चाहिए। पहले इनका पेट भरो इनको काम पर लगाओ पढ़ाओ उसके बाद ध्यान देना बेशर्म मध्य वर्ग और शोषक पूंजीपतियों की ज़रूरतों पर। अर्थशास्त्र भी नया लिखा जाना ज़रूरी है। गांधी वाला अर्थशास्त्र - ग्राम स्वराज्य वाला। किसानों को गरीब करके उनके परिवार के सदस्यों को शहरों में मजदूरी करने के लिए और वहां उनका शोषण करने की ज़रूरत नहीं है । वे जहां हैं वहीं पर रह सकते हैं यदि थोड़ा सोचने की दिशा बदलें तो.....।

 

 

(लेखक गुरुग्राम में रहते हैं।  संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।

Trending Now